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देश को एक सूत्र में बांधे रखने में सिनेमा की अहम भूमिका

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अरविंद दास, लेखक-पत्रकार

सिनेमा के बिना आधुनिक भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है. सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का यह अभिन्न हिस्सा है. हाल में रिलीज हुई करण जौहर की फिल्म ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ में किरदार फिल्मी गानों के सहारे ही स्मृतियों और सपनों को जीते हैं. जीवन भी तो स्मृतियों, इच्छाओं और सपनों का ही पुंज है.

याद कीजिए हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘पंचलाइट’ में भी गोधन मुनरी को देखकर ‘सलीमा’ का गाना गाता है- ‘हम तुमसे मोहब्बत करके सनम..’. सिनेमा विभिन्न कलाओं-साहित्य, संगीत, अभिनय, नृत्य, पेंटिग, स्थापत्य को खुद में समाहित किये हुए है. जनसंचार का माध्यम होने के नाते और लोकप्रिय संस्कृति का अंग होने से सिनेमा का प्रभाव एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. जाहिर है, आजाद भारत में बॉलीवुड ने देश को एक सूत्र में बांधे रखने में एक प्रमुख भूमिका निभायी है.

आजादी के तुरंत बाद सरकार ने भी देश में सिनेमा के प्रचार-प्रसार में रुचि ली. आज देश में हिंदी, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम, असमिया, भोजपुरी, मैथिली, मणिपुरी समेत लगभग पचास भाषाओं में फिल्म का निर्माण होता है. आश्चर्य नहीं कि आज दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्म का उत्पादन भारत में ही होता है, लेकिन जहां बॉलीवुड की फिल्मों की चर्चा होती है, अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में समीक्षकों की नजर से ओझल ही रहती हैं.

भले बॉलीवुड के केंद्र में कारोबार, मनोरंजन और स्टार का तत्व हो, लेकिन ऐसा नहीं कि पिछले 70 सालों में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से इसने नजरें चुरायी हैं. इन दशकों में सामाजिक प्रवृत्तियों को सिनेमा ने परदे पर चित्रित किया. खासकर, पिछले दशकों में भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद तकनीक और बदलते बाजार ने इसे नये विषय-वस्तुओं को टटोलने, संवेदनशीलता से प्रस्तुत करने और प्रयोग करने को प्रेरित किया है.

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पिछली सदी के पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में आधुनिकता के साथ-साथ राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. पचास-साठ के दशक की फिल्मों मसलन आवारा, दो बीघा जमीन, नया दौर, मदर इंडिया, प्यासा, मुगल-ए-आजम, साहब बीवी और गुलाम, गाइड आदि ने हिंदी सिनेमा को एक मजबूत आधार दिया. इस दशक की फिल्मों पर नेहरू के विचारों की स्पष्ट छाप है. दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. हालांकि राज कपूर, देवानंद, गुरुदत्त जैसे अभिनेताओं की एक विशिष्ट पहचान थी.

पचास के दशक में पाथेर पांचाली के साथ सत्यजीत रे का आविर्भाव होता है, जिनकी फिल्मों के बारे में चर्चित जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने कहा था- ‘सत्यजीत रे की फिल्मों को जिसने नहीं देखा, मानो वह दुनिया में बिना सूरज या चांद देखे रह रहा है’. आजादी के बाद करवट बदलते देश, परंपरा और आधुनिकता के बीच की कश्मकश इन फिल्मों में मिलती है. रे के समकालीन रहे ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों का मुहावरा और सौंदर्यबोध रे से साफ अलग था. जहां घटक की फिल्में मेलोड्रामा से लिपटी थी, वहीं सेन की फिल्मों के राजनीतिक तेवर, प्रयोगशीलता ने आने वाली पीढ़ी के फिल्मकारों को खूब प्रभावित किया. सेन का सौंदर्य बोध रे से अलहदा था. वे कलात्मकता के पीछे कभी नहीं भागे. रे की गीतात्मक मानवता भी उन्हें बहुत रास नहीं आती थी. साथ ही ऋत्विक घटक के मेलोड्रामा से भी उनकी दूरी थी.

साठ के दशक में पुणे में फिल्म संस्थान की स्थापना हुई, जहां से अडूर गोपालकृष्णन, मणि कौल, कुमार शहानी, केतन मेहता, सईद मिर्जा, जानू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली, जॉन अब्राहम जैसे फिल्मकार निकले, जिन्होंने विभिन्न भाषाओं में सिनेमा को मनोरंजन से अलग एक कला माध्यम के रूप में स्थापित किया.

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सत्तर के दशक में सिनेमा ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन’ की पृष्ठभूमि से होते हुए युवाओं के मोहभंग, आक्रोश और भ्रष्टाचार को अभिव्यक्त करता है. जंजीर, दीवार जैसे फिल्मों के साथ अमिताभ बच्चन इस दशक के प्रतिनिधि बन कर उभरे. हालांकि सत्तर-अस्सी के दशक में देश-दुनिया में भारतीय समांतर सिनेमा की भी धूम रही. आक्रोश, अर्धसत्य, जाने भी दो यारो, मंडी जैसी फिल्मों की चर्चा हुई. असल में, भारतीय सिनेमा में शुरुआत से ही ‘पॉपुलर’ के साथ-साथ ‘पैरेलल’ की धारा बह रही थी, पर इन दशकों में पुणे फिल्म संस्थान (एफटीआइआइ) से प्रशिक्षित युवा निर्देशकों, तकनीशियनों के साथ-साथ नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार उभरे. सिनेमा सामाजिक यथार्थ को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने लगा. सिनेमा साहित्य के करीब हुआ. मणि कौल, कुमार शहानी, अडूर गोपालकृष्णन की फिल्में इसका उदाहरण हैं, जहां निर्देशक की एक विशेष दृष्टि दिखायी देती है. हम कह सकते हैं कि समांतर सिनेमा का सफर 21वीं सदी में भी जारी है, भले स्वरूप में अंतर हो. अनूप सिंह, गुरविंदर सिंह, अमित दत्ता जैसे अवांगार्द फिल्मकार इसी श्रेणी में आते हैं.

नब्बे के दशक में उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद देश में जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए उसे शाहरुख, सलमान, आमिर खान, अक्षय कुमार, अजय देवगन की फिल्मों ने पिछले तीन दशकों में प्रमुखता से स्वर दिया है. यकीनन, बॉलीवुड मनोरंजन के साथ-साथ समाज को देखने की एक दृष्टि भी देता है.

कोई भी कला समकालीन समय और समाज से कटी नहीं होती है. हिंदी सिनेमा में भी आज राष्ट्रवादी भावनाएं खूब सुनाई दे रही हैं. आजादी के तुरंत बाद बनी फिल्मों में भी राष्ट्रवाद का स्वर था, हालांकि तब के दौर का राष्ट्रवाद और आज के दौर में जिस रूप में हम राष्ट्रवादी विमर्शों को देखते-सुनते हैं उसके स्वरूप में पर्याप्त अंतर है. यह एक अलग विमर्श का विषय है.

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तकनीकी क्रांति के इस दौर में मनोरंजन की दुनिया में सामग्री के उत्पादन और उपभोग के तरीकों में काफी बदलाव आया है. एक आंकड़ा के मुताबिक, भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म का बाजार सब्सक्रिप्शन सहित करीब दस हजार करोड़ रुपये का है, जो इस दशक के खत्म होते-होते तीस हजार करोड़ तक पहुंच जायेगा. बॉलीवुड और सिनेमाघरों को ओटीटी प्लेटफॉर्म से चुनौती मिल रही है. साथ ही संभावनाओं के द्वार भी खुले हैं. यहां नये विषयों के चित्रण के साथ प्रयोग की संभावनाएं भी बढ़ी हैं. न सिर्फ दर्शक, बल्कि बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक और कलाकारों की नजर भी इस बढ़ते हुए बाजार पर टिकी है.

पिछले दशक में भारत आर्थिक रूप से दुनिया में शक्ति का एक केंद्र बन कर उभरा है, लेकिन जब हम सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पॉवर) की बात करते हैं सिनेमा ही नजर आता है. यह भारतीय सिनेमा की सफलता है.

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