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Independence Day 2023: जरा याद उन्हें भी कर लें

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आरती श्रीवास्तव

भारत का स्वाधीनता संग्राम असंख्य अनाम वीरों के त्याग, संघर्ष और बलिदान की अमिट दास्तान है. आजादी के आंदोलन में अनेक वीरों/वीरांगनाओं ने अमानवीय यातनाएं सहीं, पर अंगरेजी हुकूमत के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया. उनका साहस और दृढ़ निश्चय आज भी हमारे अंदर ऊर्जा का संचार करता है. आइए स्वतंत्रता दिवस के पुनीत अवसर पर हम स्वाधीनता संग्राम के ऐसे ही कुछ गुमनाम नायक-नायिकाओं को याद करें और प्रेरणा लें

कल्पना दत्त

कल्पना दत्त का जन्म 27 जुलाई, 1913 को तत्कालीन बंगाल के चटगांव में हुआ था. एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मीं कल्पना बहुत कम उम्र में ही क्रांतिकारियों के किस्से और उनकी गतिविधियों के बारे में पढ़ना शुरू कर दिया. उनसे प्रभावित होकर उन्होंने भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने की ठान ली. फिर वह कलकत्ता के बैथ्यून कॉलेज पहुंचीं, जहां उनकी मुलाकात बीना दास, प्रीतिलता वड्डेदार व ‘मास्टर दा’ सूर्य सेन जैसे से हुई. वह उनके संगठन ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ (आइआरए) में शामिल हो गयीं और अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम का हिस्सा बन गयीं. आइआरए के सदस्यों ने जब ‘चटगांव शास्त्रागार लूट’ को अंजाम दिया, तब कल्पना पर अंग्रेजों की निगरानी बढ़ गयी. तब वह अपने घर लौट आयीं. दो साल तक भूमिगत होकर आंदोलन चलाती रहीं.बाद में पुलिस ने सूर्य सेन समेत उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया. सूर्यसेन समेत उनके साथियों को फांसी की सजा सुनायी गयी, जबकि कल्पना को उम्रकैद की सजा हुई.जब देश आजाद हुआ, तो वह भी जेल से बाहर आयीं और सक्रिय राजनीति से जुड़ गयीं. वर्ष 1971 में कल्पना के कामों को देखते हुए ‘वीर महिला’ के सम्मान से नवाजा गया. 8 फरवरी, 1995 को उनका दिल्ली में निधन हो गया.

सुशीला दीदी

‘सुशीला दीदी’ के नाम से मशहूर सुशीला मोहन, भारत की महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं. पांच मार्च, 1905 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत में उनका जन्म हुआ था. वे कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गयी थीं. काकोरी कांड के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी की फांसी के बाद वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थायी कार्यकर्ता बनीं. उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और कलकत्ता चली गयीं. वर्ष 1927 की 17 दिसंबर को जॉन सांडर्स की हत्या के बाद जब भगत सिंह कलकत्ता पहुंचे, तब सुशीला दीदी ने ही उनके ठहरने की व्यवस्था की. कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से भाग लिया. पंजाब सरकार के सचिव सर हेनरी किर्क की हत्या की योजना, जो विफल रही थी, में शामिल होने के आरोप में अन्य क्रांतिकारियों सहित उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. वर्ष 1932 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भाग लिया, जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था. इसके लिए उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया और छह महीने की जेल हुई. भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान, उन्हें और उनके पति को जेल हुई. वर्ष 1963 की 13 जनवरी को उनका निधन हो गया.

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पार्वती गिरि

पार्वती गिरि का जन्म 19 जनवरी, 1926 को ओडिशा के बरगढ़ जिले के समलाईपदार गांव में हुआ था. महज 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की स्थानीय सभा के साथ काम करना शुरू कर दिया. वर्ष 1940 में, जब सत्याग्रह शुरू हुआ, तो उन्होंने सभाओं का आयोजन करना शुरू किया और गांधी जी के खादी आंदोलन में भाग लेने के लिए गांवों में लोगों को प्रेरित किया. अपनी छोटी उम्र के बावजूद वे भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं. एक बार पार्वती और तीन अन्य लड़के बरगढ़ में एसडीओ के कार्यालय पहुंचे. वहां पार्वती एसडीओ की कुर्सी पर बैठ गयीं. एसडीओ को कार्यालय में प्रवेश करते देख उन्होंने अन्य लड़कों को आदेश दिया कि वे एक अपराधी की तरह उसे रस्सी से बांधकर उनके सामने लाएं. इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया. उन्होंने स्वतंत्रता के बाद लोगों के कल्याण के लिए भी काम किया. वर्ष 1995 की 17 अगस्त को उनका निधन हो गया.

प्रीतिलता वाद्देदार

पांच मई, 1911 को चटगांव (वर्तमान बांग्लादेश) में जन्मीं प्रीतिलता वाद्देदार क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए अस्त्र-शस्त्र उठाने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं. कॉलेज के समय में ही वे क्रांतिकारी समूह, ‘दीपाली संघ’ में सम्मिलित हो गयी थीं. बाद में, जब वे उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता गयीं, तो सूर्य सेन के संपर्क में आयीं. अप्रैल 1930 के चटगांव शस्त्रागार छापे के बाद, जब सूर्य सेन और उनके सहयोगियों में से कई पकड़ लिये गये और भूमिगत हो गये, तब प्रीतिलता को महिलाओं को संगठित करने, जेल में बंद क्रांतिकारियों से भेष बदलकर जानकारी एकत्रित करने, क्रांतिकारी पर्चे बांटने और गुप्त रूप से बम की पेटियां एकत्र करने का काम सौंपा गया. उन्होंने, कुशलतापूर्वक सभी काम किया. वर्ष 1932 की 23 सितंबर की रात को उन्होंने पहाड़तली यूरोपीयन क्लब पर हमला करने वाले क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया. इस दौरान भीषण गोलीबारी में उनके पैर में गोली लग गयी और वे भाग नहीं सकीं. आत्मसमर्पण करने के बजाय, वे सायनाइड की गोली खाकर शहीद हो गयीं.

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बैकुंठ शुक्ल

बैकुंठ शुक्ल का जन्म 15 मई, 1910 को बिहार के तत्कालीन मुजफ्फरपुर जिले (वर्तमान वैशाली) के जलालपुर गांव में हुआ था. वर्ष 1930 के दशक की शुरुआत में वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये. इसी वर्ष सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया. पटना कैंप जेल में रहने के दौरान उनकी मुलाकात विभूति भूषण दास गुप्ता से हुई और वे उनसे प्रभावित हुए. क्रांतिकारियों से मिलने के बाद स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर उनका दृष्टिकोण काफी बदल गया. उनका मानना था कि आजादी ‘बिना समझौता किये, एक क्रांतिकारी संघर्ष’ द्वारा ही हासिल की जा सकती है. जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की मौत का बदला लेने का काम बैकुंठ शुक्ल को सौंपा, तो जैसे उनकी इच्छा पूरी हो गयी. नौ नवंबर, 1932 को बैकुंठ शुक्ल और उनके साथी चंद्रमा सिंह ने फणींद्रनाथ घोष को गोली मार दी, जिसकी गवाही के कारण भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी हुई थी. वर्ष 1934 की 14 मई को गया केंद्रीय कारागार में दोनों को फांसी दे दी गयी. जब बैकुंठ को फांसी के तख्ते की ओर ले जाया जा रहा था, तब वह गा रहे थे- ‘हासि हासि परब फांसी/मां देखबे भारतबासी/बिदाय दे मां फिरे आसि.’

वान्चीनाथन अय्यर

वान्चीनाथन अय्यर का जन्म 1886 में शेनकोट्टई में हुआ था. उनका मानना था कि सशस्त्र संघर्ष से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है. जब वे त्रावणकोर में कार्यरत थे, तब वीओ चिदंबरम पिल्लई, नीलकांत ब्रह्मचारी, सुब्रमण्य शिव और सुब्रमण्य भारती से उनकी आकस्मिक मुलाकात हुई. वे सभी ‘भारत मठ संगम’ नामक संगठन का हिस्सा थे, जिसकी स्थापना अंग्रेजों से छुटकारा पाने और स्थानीय लोगों के बीच राष्ट्रवाद की भावना बढ़ाने के उद्देश्य से की गयी थी. यहां वान्चीनाथन, विनायक दामोदर सावरकर के साथी वीवीएस अय्यर से मिले, जो एक क्रांतिकारी थे और सशस्त्र संघर्ष से स्वतंत्रता प्राप्त करने में विश्वास रखते थे. वर्ष 1911 में रॉबर्ट विलियम ऐश, जो तिरुनेलवेली जिले का कलेक्टर था, उसने वीओ चिदंबरम पिल्लई और सुब्रमण्य शिव जैसे स्वतंत्रता सेनानियों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया. दोनों को जेल में यातनाएं दी गयीं. इसने वान्चीनाथन को गुस्से से भर दिया और उन्होंने ऐश को मारने का फैसला किया. वर्ष 1911 के 17 जून को, मणियाचि मेल रेलगाड़ी में उन्होंने ऐश को गोली मार दी और वहां से भाग गये, पर बाद में वे मृत पाये गये. उन्होंने अपने मुंह में गोली मारकर अपनी जान ले ली थी. ब्रिटिश राज के दौरान दक्षिण भारत में किसी ब्रिटिश अधिकारी की यह पहली बड़ी राजनीतिक हत्या थी.

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मेजर दुर्गा मल्ल

गोरखा समुदाय के मेजर दुर्गा मल्ल की कहानी अद्भुत है. एक जुलाई, 1913 को देहरादून के डोईवाला गांव में उनका जन्म हुआ था. जब गांधीजी ने 1930 में दांडी मार्च का आरंभ किया, तब मल्ल ने भी स्थानीय अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में भाग लिया. वे अक्सर रात में अपने दोस्तों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के पोस्टर चिपकाने के लिए गोरखा बटालियन क्षेत्र में प्रवेश करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के जुलूसों में शामिल हुआ करते थे. वर्ष 1931 में केवल 18 वर्ष की उम्र में वे गोरखा राइफल्स के 2/1 बटालियन में भर्ती हो गये. पर 1942 में गोरखा राइफल्स छोड़ नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय सेना (आइएनए) का गठन किया. यहां उन्हें अक्सर बर्मा की सीमा के पहाड़ी इलाकों में रणनीतिक महत्व के क्षेत्रों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए गुप्त अभियान पर जाना पड़ता था. वर्ष 1944 के 27 मार्च को जब वे दुश्मन के शिविर के बारे में जानकारी एकत्र कर रहे थे, तब पकड़े गये. वर्ष 1944 के 25 अगस्त को उन्हें फांसी दे दी गयी. फांसी पर चढ़ने से पहले उनके अंतिम कुछ शब्द थे, ‘मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा/भारत आजाद होगा…’इन सब के अतिरिक्त, महाबिरी देवी, करतार सिंह सराभा, चित्तू पांडेय, हैपोउ जादोनांग, अबादी बेगम, तीलू रौतेली, अल्लूरी सीताराम राजू, तिरुपर कुमारन, अक्कम्मा चेरियन, अनंत लक्ष्मण कन्हेरे, का फान नोंगलाइट, यू तिरोम सिंग सियम समेत तमाम ऐसे नाम हैं, जिनके बलिदानों ने देश को स्वतंत्र कराया.

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