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OMG 2 Movie Review: अक्षय कुमार-पंकज त्रिपाठी की फ़िल्म इस खास विषय को सशक्त तरीके से है बताती, पढ़ें रिव्यू

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फ़िल्म – ओएमजी 2

निर्माता – अक्षय कुमार

निर्देशक – अमित राय

कलाकार – पंकज त्रिपाठी, यामी गौतम, पवन मल्होत्रा, अक्षय कुमार,अरुण गोविल, बिजेंद्र कालरा और अन्य

प्लेटफार्म – थिएटर

रेटिंग – तीन

सेक्स एजुकेशन जैसे संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाना आसान नहीं है. विषय को थोड़ा मसालेदार बनाया जाए, तो हो सकता है कि फिल्म फूहड़ बन जाए और गंभीर रखा जाए तो फिल्म डॉक्यूमेंट्री बन सकती है, लेकिन ओएमजी 2 के निर्देशक अमित राय ने इस विषय को कुछ इस तरह पेश किया है कि लगभग पूरी फिल्म में मनोरंजन होता रहता है, साथ ही बहुत संवेदनशील लेकिन इस जरूरी मुद्दे को भी फ़िल्म बखूबी सामने ले आती है. जिस पर चर्चा करना स्कूल, कॉलेजों से लेकर माता – पिता की जिम्मेदारी बनती है. फ़िल्म को ए सर्टिफिकेट दिया गया है, लेकिन यह फ़िल्म हर टीनएजर को देखनी चाहिए. यह कहना गलत ना होगा.

सेक्स एजुकेशन के महत्व को समझाती कहानी

ओएमजी 2 की कहानी कांति शरण मुद्गल (पंकज त्रिपाठी) की है. उज्जैन के महाकाल मंदिर में उसकी प्रसाद की दुकान है. वह शिव भक्त है. अपनी पत्नी, बेटी और बेटे के साथ एक आम लेकिन खुशहाल जिंदगी जी रहे है, लेकिन एक दिन उसके युवा बेटे विवेक का स्कूल के टॉयलेट में हस्थमैथुन करते हुए एक वीडियो वायरल हो जाता है, जिसके बाद स्कूल से लेकर पूरा समाज उसे दोषी मान लेता है और कांति के पूरे परिवार की जिंदगी में उथल -पुथल मच जाती है. कांति भी शुरुआत में अपने बेटे को ही गलत मानता है और पूरे परिवार के साथ वह शहर छोड़कर जाने का फैसला करता है. भक्त मुश्किल में है, तो भगवान कब तक चुप बैठेंगे. भगवान शिव अपने एक गण ( अक्षय कुमार ) को कांति की मदद करने को भेजते है, जो कांति को एहसास करवाता है कि उसका बेटा गलत सूचना और एजुकेशन सिस्टम के अनदेखी का शिकार है. जिसमें उसके स्कूल से लेकर मेडिकल दुकान, जड़ी बूटी बेचने वाले कई लोग जिम्मेदार है. कांति सब पर मानहानि का मुकदमा दायर करता है. सेक्स शब्द को दबी जुबान में बोलने वाला समाज को क्या कांति सेक्स एजुकेशन के खुले तौर पर बात करने के लिए तैयार कर पाएगा. यही आगे की कहानी है. जिसके लिए आपको फ़िल्म जरूर देखनी होगी.

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फ़िल्म की खूबियां और खामियां

इस फ़िल्म के निर्माता अक्षय कुमार और निर्देशक अमित राय बधाई के पात्र हैं, जो उन्होने इस विषय को चुना. 2012 में रिलीज हुई ओह माय गॉड की यह फ़िल्म सीक्वल है, लेकिन इस बार कहानी एक अलग मोड़ पर चलती है. यहां पर सर्वोच्च शक्ति के अस्तित्व पर सवाल उठाने वाला एक अविश्वासी नहीं है, बल्कि ईश्वर पर विश्वास करने वाला इंसान है, जो अपने परिवार के लिए एजुकेशन सिस्टम के खिलाफ लड़ने जा रहा है और उसमें वह अपने ईश्वर की मदद मांग रहा है. जिससे यह फ़िल्म भक्ति और आस्था को अपनी कहानी में आहत नहीं करती बल्कि अहमियत देती है. कुलमिलाकर फ़िल्म को लेकर जो भी विवाद हुआ है वो पूरी तरह से निराधार है. यह फ़िल्म सेक्स एजुकेशन की पैरवी करती हिंदी सिनेमा की दूसरी फिल्मों से कई लिहाज से अलग है. यह फ़िल्म सेक्स एजुकेशन को भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा बताती है. सिर्फ कामसूत्र ही नहीं पंचतंत्र में भी काम शिक्षा को अहम माना गया है.

फ़िल्म को ए सर्टिफिकेट देने के पीछे सेंसर बोर्ड की सोच

यह उदाहरण सामने लाती है. यह पहलू भी रखती है कि सेक्स एजुकेशन जो विदेशों में पढ़ाया जा रहा है. उसकी शुरुआत हजारों साल पहले सनातन परम्परा में ही हुई थी, लेकिन अब वही धर्म उसे अश्लील बताकर उसपर बात तक करना परम्परा के खिलाफ समझता है. फ़िल्म यह बात पुख्ता तौर पर रखती है कि अगर स्कूलों में सेक्स एजुकेशन को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया तो टीनएजर्स झोलाछाप डॉक्टर्स, हकीमों और पोर्न वेबसाइट से अधकचरा ज्ञान लेते रहेंगे. जो उनके शरीर से लेकर दिमाग़ और भावनाओं तक को चोट पहुंचा सकता है. फ़िल्म गुड़ टच बैड टच, माता पिता के बच्चों का दोस्त बनने,पुरुषों को महिलाओं को समझने की भी बात को छूती है. खामियों की बात करें तो फ़िल्म सेकेंड हाफ में थोड़ी कमजोर पड़ गयी है. कोर्टरूम में थोड़े और दिलचस्प बहसबाजी की जरूरत महसूस होती है, लेकिन इन खामियों पर सवाल उठाते हुए मन में यह सवाल भी आता है कि फ़िल्म को ए सर्टिफिकेट देने के पीछे सेंसर बोर्ड की सोच क्या थी. क्या वह मौजूदा दौर से अनजान हैं. जिस आयु के लोगों को यह फ़िल्म खासतौर पर देखना चाहिए. ए सर्टिफिकेट देने के बाद उसी आयु वर्ग को इस फ़िल्म से दूर कर दिया गया है. यह पूरे परिवार के साथ देखी जाने वाली फ़िल्म है, जिससे यह बात भी समझ आती है कि सेंसर बोर्ड की कैंची के 40 कट्स यानी फेरबदल नें फ़िल्म के प्रभाव को भी कम कर दिया हो. वरना यह फ़िल्म अपनी बात को और मजबूती से रख पाती थी. शायद कोर्टरूम की बहस सेंसर के कट्स के पहले असरदार रही हो. दूसरे पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म के संवाद कहानी और कलाकारों को मजबूती देते है।फ़िल्म का गीत – संगीत कहानी के अनुरूप है, लेकिन वह प्रभाव कहानी में नहीं जोड़ पाया है. जैसी उम्मीद थी.

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पंकज त्रिपाठी और यामी गौतम का कमाल

अभिनय की बात करें तो यह अक्षय कुमार की नहीं बल्कि पंकज त्रिपाठी की फ़िल्म हैं. उन्होंने एक बार फिर साबित किया है कि वे कितने उम्दा कलाकार हैं. उन्होंने अलग बोली और अंदाज में अलग तरह से कांति के किरदार को जिया है. जिसके लिए उनकी तारीफ बनती है. यामी गौतम ने भी प्रतिद्वंदी वकील के किरदार को पूरे आत्मविश्वास के साथ पेश किया है।अपने किरदार के ग्रे शेड को भी उन्होंने बखूबी आत्मसात किया है. पवन मल्होत्रा अपनी भूमिका में छाप छोड़ गए हैं. अक्षय कुमार फ़िल्म में गिने – चुने मौकों पर ही नजर आए हैं, लेकिन वह हमेशा की तरह ध्यान खिंच ही ले जाते हैं. वह फ़िल्म को मजबूती से सपोर्ट करते हैं. अक्षय की तारीफ इस बात के लिए भी करनी होगी कि उन्होने पंकज त्रिपाठी को खुद से ज़्यादा स्क्रीन स्पेस दिया है. बृजेन्द्र कालरा,गोविन्द नामदेव, श्रीधर दूबे,अरुण गोविल और पंकज त्रिपाठी की पत्नी और बच्चों का किरदार निभा रहे कलाकारों नें भी अपनी भूमिकाओं में न्याय किया है.

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